The following article was mailed to me by Chiti Singh. The dialogue between lord Ram and Bharat represent the crux of indian philosophy and have been the source of inpiration for centuries. I thought to post it here on the even of Ram-Navami.
Bharat-Darshan
सो सुखु करमु धरमु जरि जाउ। जहँ न राम पद पंकज भाउ।
जोगु कुजोगु ज्ञानु अग्यानु। जहँ नहीं राम पेम परधानू ।।
वह सुख, कर्म और धर्म जल-जाए या नष्ट हो जाए जो राम के चरणकमलों के ‘भाव’ से रहित है. अर्थात जिसमें ‘राम - भाव’ का अभाव है। नहीं चाहिए मुझे ऐसा सुख, ऐसा कर्म एवं ना ही चाहिए मुझे ऐसा धर्म जिसमें ‘राम-प्रेम’ का अभाव
है। ‘कुयोग’ ही है वह ‘योग’ जिसमें राम की प्रधानता नहीं है, अज्ञान ही है वह ‘ज्ञान’ जिसका लक्ष्य ‘राम-प्रेम’ नहीं है।
अर्थात : न केवल सुख, कर्म व धर्म अपितु ऐसा योग एवं ज्ञान भी मुझे नहीं चाहिए जो कि ‘राम’ से एवं उनके प्रेम से मुझे विमुख करता है। सिद्धांत यह है कि सुख, धर्म , कर्म एवं ज्ञान राम से ही अपना सच्चा स्वरुप पाते हैं तथा ये सब राम - विहीन होने पर मिथ्या (निरर्थक या झूठे) ही नहीं अपितु विपरीत-प्रभाव वाले हो जाते हैं। राम-विहीन होने पर सुख दुःख बन जाता है , कर्म कुकर्म बन जाता है, धर्म बन जाता है अधर्म , योग हो जाता है कुयोग तथा राम-विहीन ज्ञान का ही तो नाम है विपरीत-ज्ञान या विपरीत-बुद्धि ।
इन दो पंक्तियों में (मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि) भरत जी ने’ वेदांत का निचोड़ कह डाला है। ‘एक’ ही के आने से सब कुछ दिव्य तथा स्वरूपवत हो जाता है तथा उस एक ही के जाने से सब कुछ तुच्छ एवं विपरीत हो जाता है । यही तो वेदांत है जिसे आपने अनेकों बार समझाने की कोशिश की है। राम-विहीन सुख, कर्म धर्म योग ज्ञान ही का नाम हैं दुःख, अधर्म, कुकर्म
कुयोग एवं अज्ञान। इतना ही नहीं राम-भाव से ओतप्रोत दुःख , कुयोग, अधर्म , कुकर्म अज्ञान भी सुख योग सुकर्म एवं ज्ञान से भी बढ़ कर है। भारत जी के अनुसार राम के बिना इन भावों एवं कर्मों को ना तो परिभाषित किया जा सकता या ना ही उनका अस्तित्व सिद्ध होता है।
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना।
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधु। बैरु अंध-प्रेमहि न प्रबोधू।।
वेद, शास्त्र और पुराणों में प्रसिद्ध है तथा यह जगत भी जनता है कि - सेवाधर्म बड़ा ही कठिन है। क्योंकि स्वामिधर्म (स्वामी की सेवा का धर्म) एवं ‘स्वार्थ’ में विरोध है अर्थात ये दोनों (सेवा एवं स्वार्थ ) एक साथ नहीं निभ सकते। इतना ही नहीं सेवा-धर्म एवं स्वार्थ के परिणाम भी विपरीत ही होते हैं। स्वार्थ से वैमनस्य एवं राग (प्रेमांधता) पैदा होते है जबकि सेवा-धर्म से ज्ञान
की प्राप्ति होती है।
अथवा जैसे वैरी (वैमनस्य करने वाला) एवं रागी (प्रेमान्ध) इन दोनों को कभी ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती इसी तरह स्वार्थी कभी सेवा-परायण नहीं हो सकता। - ऐसा सिद्धांत है। तात्पर्य यह है कि सेवा का सम्पादन ज्ञान से होता है न कि स्वार्थ से।
यदि इन चौपाई को ऊपर वाली चौपाइयों के साथ मेल करके देखा जाए तो मुझे बड़ा ही अद्भुत भाव जान पड़ता है. सेवा एवं मिशन का रहस्य बड़ी ही आसानी स्पष्ट हो जाता है। आपने मुझे मानस की व्याख्या करते समय बताया था कि भरत वो व्यक्तित्व हैं जिनके वचनों का पालन करने के लिए राम भी तत्पर रहते हैं। आपने एक बार कहा था कि भारत आये तो राम को लिवाने थे लेकिन अंततः उन्होंने राम से ऐसा नहीं कहा। क्यों कि यदि भरत ऐसा कह देते तो भगवान् राम उस भारत-धर्म (भरत निर्दिष्ट धर्म का ) का अपना सौभाग्य मानकर पालन करते और फिर राम-चरित अधूरा रह जाता। आपने आगे बताया था कि इसीलिये तुलसीदास जी ने कहा है कि भरत-चरित अपार है जिसका पार मुनि वशिष्ठ एवं जनकादि की बुद्धि भी नहीं ले पाती। इसीलिये शायद आपने कहा था कि राम चरित तो भरत चरित की नींव पर टिका हुआ है। इस दृष्टि से भरत के वाक्य तो सिद्धांत ही होते हैं। इसलिए इन पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है :
ज्ञान एवं कर्म बिना राम के सिद्ध नहीं होते (ऐसा भरत पहले ही कह चुके हैं ).और यहाँ बताते हैं कि सेवा में ज्ञान एवं कर्म का समावेश होता है । इन दोनों की संगती बिठा कर देखें तो भरत जी के अनुसार सेवा का स्वरुप क्या ठहरा ? भारत जी के अनुसार सेवा का स्वरुप है राम , ज्ञान एवं कर्म। सेवा-धर्म में राम , ज्ञान एवं कर्म तीनों का समावेश होता है। इस दृष्टि से भरत जी के लिए सेवा एक मिशन है अर्थात सेवा-धर्म । आपने जो मिशन (क्रिएटिव मिशन कहें अथवा मुक्त माइंड मिशन, इन ) का जो स्वरुप हमें बताया बार बार बताया है उसमें भी राम , ज्ञान एवं कर्म इन तीनों का ही समावेश है। अतः मेरी दृष्टि से जो भरत जी का सेवा-धर्म है वह आपके शब्दों में मिशन-धर्म कहा जा सकता है। सेवा के इस गूढ़ रहस्य को सुलझाने से मुझे हर्ष होता है। अतः इन दोनों चोपाई में सेवा के स्थान पर मिशन भी प्रयुक्त किया
जा सकता है।
आज मुझे आपकी वह बात समझ में आयी है कि किस-तरह रघुकुल (राम, भरत आदि ) का जीवन लौकिक होते हुए भी मिशन (सेवा-धर्म) की दृष्टि से अलौकिक भी था। सेवा धर्म में रत हुए का जीवन लौकिक एवं अलौकिन दोनों ही होता है। यही सेवा-धर्म की अर्थात मिशन-धर्म की महिमा है।
कृपा अनुग्रहु अंगु अघाइ। कीन्ही कृपानिधि सब अधिकाई।
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाईं।।
कृपानिधान ने मुझ पर साङ्गोपाङ्ग भरपेट कृपा और अनुग्रह आदि सब अधिकता से ही किये हैं अर्थात मुझे आपकी कृपा एवं अनुग्रह खूब भरपेट मिले हैं । हे गोसाईं ! हे नाथ। आपने अपने शील, स्वभाव और हित करने वाली ज्ञान-दृष्टि से मेरा दुलार सदा ही रखा है। यहाँ‘नाथ / गुसाईं ’ के स्वाभाव या कृपा का रहस्य छिपा है। स्वामी के स्वभाव के दो पहलूँ हैं : १. हितकारी या भलाई करने वाली दृष्टि २. शीलता अथवा क्षमा-शीलता। उनकी हित या भलाई करने की दृष्टि सेवक के दोषों को उजागर करती है तथा उनकी शीलता क्षमा प्रदान करती है। इन दोनों से ही सेवक (क्रिएटिव मिशन की भाषा में स्ट्राइवर या प्रयासक) का खूब विकास होता है। मेरे कृपालु नाथ, दोषों को उजागर तो करते हैं लेकिन उन्हें क्षमाशील होने से मन में नहीं रखते।
इस चोपाई से मुझे मानव सेवा संघ की प्रार्थना याद आती है जिसे मैंने अनगिनत-बार क्रिएटिव मिशन के सत्संग में दुहराया है। आज मुझे ऐसा लगता है कि स्वामी शरणानन्द जी महाराज को उस प्रार्थना की प्रेरणा भरत-प्रसंग से
ही प्राप्त हुई होगी :
हे मेरे नाथ , आप अपनी सर्व-समर्थ, पतित पावनी, अहेतुकी …. …आदि आदि
सुहृद सुजान सुसाहिबहि , बहुत कहिब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब , सबइ सुधारी मोरि ।।
ऐसे नेक साहिब या अग्र-जन जो कि सुहृद हैं, जो कि बुद्धिमान हैं तथा जो श्रेष्ठ हैं। ऐसे अग्र-जनों ( बड़ों ) से बहुत कहना बड़ा अपराध है (कोई छोटाअपराध नहीं है अपितु बड़ा अपराध है ) । इसलिए,हे देव! अब मुझे आज्ञा दीजिये कि में आपके बताये हुए रास्ते पर आगे बढूँ। में किन शब्दों में आपकी कृतज्ञता को व्यक्त करूँ आपने मेरी सभी बात सब तरह से सुधार दी हैं।
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जब कभी मन में कुछ संशय उठते हैं तो सदा मानस से उनका निवारण हो जाता है और
मानस से मेरा परिचय ही आपने करवाया है! मानस को भारतीय समाज शास्त्र की
निधि एवं स्रोत के रूप में भी देखा जा सकता है। व्यक्तिगत, परिवार-गत एवं
सामाजिक जीवन की कठिन से भी कठिन एवं सूक्ष्म से भी सूक्ष्म समस्याओं का
समाधान मानस में मिल जाता है. मेरा मानस, वेदांत एवं मानव सेवा संघ से
परिचय करवाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। आप के सिवा और आपके जैसा मेरा कोई
शुभ-चिंतक एवं भला चाहने वाला नहीं है । मेरे जीवन में और किसी का कोई
महत्व भी नहीं है । आपके द्वारा निर्णीत पथ पर अग्रसर होने में ही लाभ है
अतः आप जैसा कहेंगे में वैसा ही करुँगी।
आप बिल्कुल सही कहते हैं। हमें प्रेम व उद्देश्य से प्रेरित होना चाहिए न कि
स्वार्थ, अहंकार से । क्रिएटिव मिशन की इस शिक्षा से मैं पूर्णतया सहमत
हूँ कि ‘मानव जीवन में अहंकार (ईगो), भय व वैमनस्य का कोई स्थान नहीं’ । भय
एवं वैमनस्य तो मुझे पहले भी नहीं था किन्तु अब शनै शनै इन दोनों के मूल
‘ईगो ‘ कभी नष्ट प्राय हो गया है ।
मैं कुछ भी कहूं दूँ या करूँ किन्तु आपके व आपके-मिशन के प्रति मेरी श्रद्धा अटूट है… निरंतर है व किसी भी अभिव्यक्ति से परे है।
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